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आकाश पाताल

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5270
आईएसबीएन :000

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एक सामाजिक उपन्यास...

Aakash Patal a hindi book by Gurudutt -आकाश-पाताल - गुरुदत्त

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रथम परिच्छेद

‘‘तो आप हैं रजनीकांत ?’’ मथुरा रोड पर स्कूटरों के एक कारखाने के कार्यालय में, जनरल मैनेजर के कमरे में बैठे एक प्रौढ़ावस्था के व्यक्ति ने सामने खडे युवक से पूछा।
सामने खड़ा युवक फटे-पुराने, पैबन्द-लगे तथा धूल से लथपथ वस्त्र पहने था। सूती कोट, पतलून और एक मैले-से कॉलर में बेरंग हुई नैक्टाई, यह उसकी पोशाक थी। उसका जूता भी मैला था। ऐसा प्रतीत होता था कि उस पर पॉलिश हुए सप्ताह से ऊपर हो चुका है। वह सिर से नंगा था। देखने में सुदृढ़, आँखों में स्थिरता एवं चेहरे पर ओज था। फिर भी मुख पीला पड़ रहा था और कनपटी के पास एक-आध बाल सफेद-सा प्रतीत होता था।
जनरल मैनेजर प्रश्न पूछते हुए, ध्यान से उसकी ओर देख रहा था। जब उसने पूछा, ‘‘तो आप हैं रजनीकांत ?’’ तब सामने खड़े युवक ने कुछ झेंप में आँखें नीची किए कहा, ‘‘जी। मैं....।’’ आगे वह कुछ नहीं कह सका। गला सूख जाने से उसकी आवाज़ नहीं निकल सकी।

‘‘तुम क्लर्क का काम करने के लिए प्रत्याशी हो ?’’ मैनेजर ने पुनः पूछा।
पुनः यत्न कर युवक ने कहा, ‘‘जी...।’’
‘‘तुम विज्ञापन पढ़कर आए हो ?’’
‘‘जी, स्टेट्समैन में। मैं....।’’ वह पुनः कहता-कहता चुप हो गया।
‘‘तो उसमें पढ़ा नहीं कि मुलाकात का समय दस बजे था ?’’
युवक ने उत्तर नहीं दिया। कुछ कहने को उसके होंठ खुले, परन्तु आवाज़ नहीं निकली।
‘‘रजनीकान्त...।’’ जनरल मैनेजर कुछ और कहने को था कि उसने देखा युवक चक्कर खाकर गिरने वाला है। युवक ने मैनेजर साहब की मेज़ का आश्रय ले अपने को गिरने से बचाया। थूक गले के नीचे उतारकर गला साफ कर उसने पुनः कहने यत्न करना चाहा, परन्तु वह भर्रायी आवाज़ में ‘मैं’ कहकर ही रुक गया। उसके गले से आवाज़ नहीं निकल सकी। जनरल मैनेजर ने यह देखा तो मेज़ पर लगी घण्टी का बटन दबाया। कमरे के बाहर घण्टी बजी और द्वार पर बैठा चपरासी भीतर आ गया। मैनेजर ने कहा, ‘‘इन बाबू साहब के लिए एक कुर्सी सामने रख दो।’’

अभी तक कमरे की अन्य कुर्सियाँ कमरे के दोनों ओर दीवार के साथ रखी थी।
चपरासी ने एक कुर्सी लाकर रजनीकान्त के समीप रख दी। मैनेजर ने युवक को कहा, ‘‘बैठो रजनीकान्त !’’
युवक ने इसे गनीमत माना और वह बैठ गया। मैनेजर ने चपरासी को कहा, ‘‘एक गिलास पानी ले आओ।’’
चपरासी बाहर गया और दो मिनट में जल से भरा काँच का गिलास एक प्लेट पर रखकर ले आया। मैनेजर ने कहा, ‘‘इसे पीकर गला साफ कर लो।’’
युवक एक ही घूँट में गिलास का पूर्ण जल पी गया। जल पीकर उसने गिलास चपरासी के हाथ में पकड़ी प्लेट पर रख दिया।
चपरासी ने एक क्षण तक मैनेजर साहब के मुख पर देखा और जब उसने कुछ नहीं कहा तो कमरे से बाहर निकल गया। मैनेजर ने रजनीकान्त से कहा, ‘‘उस विज्ञापन में लिखा था कि भेंट और चयन का समय दस बजे है और अब बारह बज रहे हैं।’’

जल पीने से रजनीकान्त में कुछ साहस भर गया था। अतः उसे उत्तर देने में अब कठिनाई नहीं हुई। उसने कहा, ‘‘जी, समय पर पहुँच नहीं सका।’’
‘‘पर यहाँ तो ‘सिलैक्शन हो चुका है।’’
‘‘मैं समय पर पहुँच नहीं सका।’’
‘‘पहुँचना तो चाहिए था।’’
‘‘मैं बाईस मील की पैदल यात्रा करता हुआ आ रहा हूँ, यत्न करने पर भी इससे पहले नहीं पहुँच सका।’’
‘‘तो रेल में आ जाते।’’
‘‘टिकट के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे।’’
‘‘तो बिना टिकट के यात्रा कर लेते।’’
‘‘पर श्रीमान् ! पकड़ा जाता तो यहाँ बारह बजे भी न पहुँच पाता।’’
‘‘ओह ! जनरल मैनेजर के मुख से निकल गया।
बात बदलकर मैनेजर ने कहा, ‘‘तुमने चिट लिखकर भेजी है, उस पर अपनी योग्यता नहीं लिखी ?’’
‘‘सर !’’ अब युवक अंग्रेजी में बात करने लगा था। उसने कहा, ‘‘आप ‘टैस्ट’ कर सकते हैं। कुछ लिखता तो उसका प्रमाण-पत्र मेरे पास नहीं है।’’
‘‘कहाँ गया ?’’

‘‘पाकिस्तान में रह गया था और अब तक मेरी योग्यता उस प्रमाण-पत्र में लिखे से बहुत अधिक हो गई है।’’
मैनेजर के मुख पर मुस्कराहट दौड़ गई। अब वह बहुत ध्यान से इस युवक को देखने लगा। इसके उत्तरों में सतर्कता और स्फूर्ति थी। उत्तरों में एक विशेष रुचि उत्पन्न करने की बात भी थी। इसमें एक डंक था, जो सीधा हृदय के मर्म-स्थान पर चुभता था। मैनेजर ने कहा, ‘‘तुम ठीक कहते हो। अच्छा, यह बताओ कि कहाँ-कहाँ काम किया है ?’’
‘‘अनेक स्थानों पर किया है और अनेक रूपों में तथा पदों पर किया है। ईंट ढोने वाले से लेकर दुकान पर प्रबन्धक कर का काम किया है।’’
‘‘और सब स्थानों पर असफल सिद्ध हुए हो ?’’
‘‘जी, यही कहा जाएगा। भाग्य का चक्र है।’’
‘‘भाग्य तो पुरुषार्थ से बदला जा सकता है।’’
‘‘सुना तो मैंने भी यही था, परन्तु श्रीमान् ! मेरी अवस्था में ऐसा नहीं हुआ।’’
इस समय एक क्लर्क हाथ में एक फाइल लेकर आया। फाइल में एक निशान रखा था। क्लर्क ने वहाँ से फाइल खोलकर मैनेजर के सामने रख दी। मैनेजर अब फाइल देखने लगा। उसने पिंजल होल से एक काग़ज निकाला, फाइल को पढ़कर उस पर नोट लेना आरम्भ कर दिया। पन्द्रह मिनट तक इस काम में लगे। तदुपरान्त उसने क्लर्क को कहा, ‘‘यह पत्र टाइप कराकर ले आओ। यह पत्र रजिस्टर्ड डाक से अभी जाना है। ‘लंच’ से पूर्व यह काम हो जाना चाहिए।’’
क्लर्क गया तो एक अन्य व्यक्ति डाक लेकर आ गया।

रजनी ने समझा कि यहाँ काम बनता दिखाई नहीं देता। अतः उसने उठते हुए कहा, ‘‘तो मैं जाऊँ ?’’
‘‘कहाँ जाओगे ?’’
‘‘वापस दिल्ली।’’
‘‘काम पाने के लिए पुरुषार्थ किए बिना ही ?’’
रजनीकान्त इस कथन का अर्थ समझने के लिए मैनेजर के मुख पर देखने लगा। मैनेजर मुस्करा रहा था। इस मुस्कराहट का अर्थ न समझ रजनी चुपचाप उसका मुख देखने लगा। वह मन में विचार करने लगा था कि क्या अभी काम मिलने का कोई अवसर है ?
आखिर मैनेजर ने कहा, ‘‘बैठो। अभी तुमसे कुछ और जानना है।’’
रजनीकान्त बैठा तो मैनेजर डाक देखने लगा। देखते-देखते वह प्रत्येक पत्र पर आज्ञाएँ भी लिखता जा रहा था। इस काम में आधा घण्टे के ऊपर लग गया। इस समय दीवार के साथ लगे क्लॉक में एक बज गया था। एक बजते ही पहला क्लर्क आया और वह पत्र जो टाइप करने के लिए ले गया था, लेकर आ गया। मैनेजर ने पत्र ले घड़ी में समय देखा और पढ़ा। पढ़कर पत्र की प्रतिलिपियों पर हस्ताक्षर कर क्लर्क को कहा, ‘‘तुरन्त भेज दो !’’
क्लर्क कमरे से बाहर गया तो जनरल मैनेजर ने कहा, ‘‘चलो।’
रजनी ने विस्मय से मुख देखते हुए पूछ लिया, ‘‘कहाँ ?’’

‘‘तुम्हारा ‘टैस्ट’ हो रहा है। परन्तु तुम कहते हो कि पैदल ही यहाँ आए हो। तब तो बहुत थक गए होगे ?’’
मैनेजर उठा तो रजनीकान्त भी खड़ा हुआ। मैनेजर ने कहा, ‘‘थोड़ा आराम कर लो। तब तुम्हारी परीक्षा होगी। आओ, चलो मेरे साथ।’’
रजनीकान्त नहीं जानता था कि परीक्षा के लिए कहाँ ले जाया-जा रहा है। फिर भी एक क्षीण-सी आशा लिये हुए जनरल मैनेजर मिस्टर सोमदेव के पीछे-पीछे कमरे से बाहर निकल आया।
कार्यालय के बाहर बरामदे के आगे एक बढ़िया ‘शिवरलैट’ गाड़ी थी। सोमदेव उस गाड़ी के समीप खड़ा हो घूमकर देखने लगा कि युवक आ रहा है या नहीं ? रजनीकान्त उसके साथ-साथ ही था। सोमदेव मोटर में सवार हो गया और बोला, ‘‘आ जाओ। पहले भोजन करेंगे।’’
यह बात रजनीकान्त के मन की थी, परन्तु वह गाड़ी में चढ़ने से झिझक रहा था। वह अपने मैले कपड़ों और लाला जी के सर्वथा स्वच्छ सूट को देख गाड़ी में चढ़ने से संकोच अनुभव कर रहा था।
सोमदेव उसकी झिझक को समझ गया। उसने कह दिया, ‘‘आओ, रजनी ! काम समय पर करना चाहिए नहीं तो बस छूट जाती है। फिर दूसरी बस की प्रतीक्षा करनी पड़ती है।’’

रजनी के लिए यह सब रहस्यमय था। वह गाड़ी में सवार हो लालाजी के पास, परन्तु कुछ हटकर बैठ गया। मैनेजर ने ड्राइवर से कहा, ‘‘घर चलो !’’
‘‘जब गाड़ी स्टार्ट हुई तो लाला सोमदेव ने पूछ लिया, ‘‘तुम्हारे पिता का क्या नाम है ?’’
‘‘जी, पण्डित सत्यकाम।’’
‘‘कहाँ के रहनेवाले हो ?’’
‘‘लाहौर के। बाल्यकाल में शहर से दूर एक गाँव में एक कच्चे झोंपड़े में रहते थे। बाद में गुमटी बाजार में राजा ध्यानसिंह की हवेली के पास एक गली में रहने लगे। पाकिस्तान बनने के समय वहीं से भागकर आए हैं।’’
‘‘विवाह हुआ है ?’’
‘‘जी, अभी नहीं।’’
मैनेजर ने कहा, ‘‘मेरा अनुमान है कि तुम अवश्य तीस वर्ष के होगे ?’’
‘‘जी।’’
‘‘बाल कुछ जल्दी पकने लगे हैं !’’
‘‘भोजन के अभाव में मर रहे प्रतीत होते हैं।’’
‘‘घर में कितने प्राणी हो ?’’

‘‘कुछ अधिक नहीं। मैं तो हूँ ही। माँ हैं और बुआ हैं। दोनों विधवा हैं और लोगों के घरों में काम कर कठिनाई से रोटी-कपड़े का प्रबन्ध करती हैं।’’
‘‘ओह !’’ मैनेजर के मुख से पुनः अनायास ही निकल गया।
मोटरगाड़ी कारखाने से निकल सड़क के दूसरी ओर बने एक आलीशान बँगले में चली गई। बँगले के सामने घास का एक विशाल लॉन था। लॉन के चारों ओर फूलों की क्यारियाँ थीं। गाड़ी बँगले के अंदर बरामदे में जा खड़ी हुई।
सोमदेव ने गाड़ी से उतरते हुए रजनीकान्त को कहा, ‘‘आओ, पहले तुम्हारा पेट भरने का प्रबन्ध कर दूँ। शेष बात उसके पीछे होगी।’’
रजनीकान्त अनुभव कर रहा था कि भाग्य ने दिशा बदली है, परन्तु उसके जीवन में पिछले बारह वर्षों में कई ऐसे अवसर आ चुके थे और प्रत्येक बार वह किसी न किसी दुर्घटना में भटकता हुआ, अपनी पहली स्थिति पर ऐसे आ जाता था जैसेकि कोई भारी वस्तु जल के ऊपर आकर पुनः अपने बोझ से जल के तल पर जा बैठे।
सोमदेव रजनीकान्त को लेकर कोठी के ड्राइंग-रूम में चला गया। वहां कालीन, सोफा, कुर्सियाँ, दरवाज़ों और खिड़कियों पर लगे पर्दे तथा अन्य सजावट का सामान देख वह उनकी अपने वस्त्रों और जूतों से तुलना कर रहा था।

सोमदेव ने कहा, ‘‘भोजन के पू्र्व स्नान कर लिया जाए तो भूख खूब लगेगी।’’
रजनीकान्त भी मुस्कराया और बोला, ‘‘साहब ! भूख तो पहले ही खूब लगी है।’’
सोमदेव ने हँसते हुए कहा, ‘‘फिर कुछ हानि नहीं होगी। देखो, मैं प्रबन्ध करता हूँ।’’
दोनों खड़े थे। सोमदेव ने एक सोफे पर बैठते हुए उसकी बगल में लगे बिजली के बटन को दबाया। कहीं दूर घण्टी बजी। तुरन्त चपरासी भीतर आकर सलाम कर सामने खड़ा हो गया। सोमदेव ने कहा, ‘‘बाबू स्नान करेंगे...गरम पानी से। इन्हें गुसलखाना दिखाकर समझा दो। साथ ही भोजन के समय पहनने के कपड़े भी दे दो।’’
अब सोमदेव ने रजनीकान्त से कहा, ‘‘रजनीकान्त, स्नान कर दूसरे वस्त्र पहनकर खाने के कमरे में आओ। मैं वहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा।’’
चपरासी ने रजनीकान्त से कहा, ‘‘हुजूर, आइए।’’

रजनीकान्त कुछ ऐसा अनुभव करने लगा मानो किसी आँधी में उड़ता-सा चला जा रहा था। वह चपरासी के साथ ड्राइंग-रूम से बाहर चला गया। चपरासी उसे एक बरामदे से ले-जाकर एक कमरे में ले गया। उस कमरे के साथ लगा गुसलखाना था। गुसलखाने में ले जाकर चपरासी ने कहा, यह ‘बाथरूम’ है। यह देखिए सामने दो नल लगे हैं। यह ठंडे जल का है और यह गर्म जल का है। अपनी इच्छानुसार टब में जल मिलाकर स्नान करिएगा।
रजनीकान्त अभी देख ही रहा था कि क्या किस प्रकार है कि चपरासी उसके पहनने के लिए रेशमी धोती, कुर्ता तथा चप्पल ले आया। उसने कपड़े हैंगर पर लटका दिए और उसके लिए टब में पहले ठंडा पानी भर दिया और फिर गरम जल का टैप खोल दिया। जब गरम पानी टब में आने लगा तो उसने कह दिया, हुजूर ! आप हाथ लगाकर देखिए कि आपके लिए कितना गरम जल ठीक रहेगा।’’
तदुपरान्त उसने कमरे में एक बटन दबाया और वहाँ रखे एक बाक्स में से हवा निकलकर कमरे को गरम करने लगी। चपरासी दरवाज़ा बन्द करके चला गया तो रजनीकान्त ने अपने मैले कपड़े उतारकर खूँटी पर टाँग दिए और स्नान करने लगा।
बदन पर साबुन मल-मलकर टब में बैठ उसने स्नान किया। इससे उसकी थकावट मिट गई और भूख व्याकुल करने लगी। रेशमी वस्त्र पहन और अपने मैले वस्त्रों को वहीं छोड़ वह बाहर निकला तो चपरासी वहाँ खड़ा था। उसने कहा, ‘‘आइए, लाला जी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

:2:


सोमदेव रजनीकान्त को बाथ-रूम में भेज स्वयं अपने कमरे में चला गया। वहाँ उसकी पत्नी बैठी एक पुस्तक पढ़ रही थी। वह पति को आया देखकर बोलीं, ‘‘आप स्नान करेंगे ?’’
‘‘हाँ; मैं कारखाने से आता हूँ तो कुछ ऐसा अनुभव करता हूँ कि वहाँ की मैल अपने साथ उठाए आ रहा हूँ।’’
‘‘तो कर लीजिए। अभी चन्दन और अरुण भी नहीं आए।’’
सोमदेव ने बता दिया, ‘‘एक मित्र का लड़का अति फटे हाल में नौकरी ढूँढ़ता हुआ आया है। उसे स्नान के लिए गुसलखाने में भेजकर आया हूँ और मैं भी स्नान करने जा रहा हूँ।
वह अपने सोने के कमरे से संलग्न बाथ-रूम में चला गया। पत्नी साधना देवी ने भी पुस्तक छोड़ी और भोजन के लिए वस्त्र बदलने लगी। सोमदेव ने अपने घर में यह प्रथा बना दी थी कि परिवार के सब लोग प्रातः-सायं भोजन के समय विशेष वस्त्र पहनते थे। वे रोशमी होते थे और इस समय के लिए पृथक रखे रहते थे।
जब तक लाला जी स्नान करके आए, लाला जी की लड़की चन्दन और लड़का अरुणदेव भी आ गए। लड़की फैक्टरी के कर्मचारियों के बच्चों को पढ़ाने के लिए स्थापित प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने जाया करती थी। वह बी.एड. की परीक्षा पास कर शिक्षा-कार्य कर रही थी। अरूणदेव ने पिता से पृथक् कारखाना खोला हुआ था। यह रबर के पाइप इत्यादि बनवाता था।

घर के सब लोग खाने के कमरे में पहुँचे, परन्तु रजनीकान्त अभी तक नहीं आया था। ये उसकी प्रतीक्षा करने लगे। साधना, सोमदेव, चन्दन अरूणदेव की पत्नी मृदुला, अरूण और उसकी बच्ची ही परिवार के प्राणी थे। मृदुला की बच्ची का नाम था सन्तोषकुमारी। वह इस समय ढाई वर्ष की आयु की थी। वह भी वहाँ एक कुर्सी पर माँ के समीप बैठी थी। प्रतीक्षा करते हुए सोमदेव ने रजनीकान्त के विषय में कह दिया, ‘‘हमें अपने कार्यालय के लिए एक क्लर्क की आवश्यकता थी और मैंने समाचार पत्र में विज्ञापन दे रखा था। आज प्रत्याशियों को बुलाया था। बीस के लगभग प्रत्याशी आए थे। मैंने उनकी परीक्षा लेकर एक की नियुक्ति कर दी थी। यह लड़का बारह बजे पहुँचा। इसने अपना नाम भीतर भेजा तो मुझे सन्देह हुआ कि यह वही रजनीकान्त न हो जो मेरे मित्र पण्डित सत्यकाम का लड़का था। मैंने इसे एक बार लाहौर में अपनी माँ के साथ देखा था।
‘‘जब यह भीतर आया तो मैंने पहचान तो लिया, परन्तु यह बहुत ही फटे-पुराने वस्त्रों में था। मैं विचार करने लगा कि इसकी सहायता करनी चाहिए। मैं इसे घर ले आया हूँ। अभी तक यह मुझे पहचानता नहीं है। फिर भी इसकी माँ मुझे पहचान जाएंगी। मैं अपना परिचय बिना दिए इसकी सहायता करने का विचार कर रहा हूँ।’’
‘‘इसका पिता जीवित है ?’’ चन्दन ने उत्सुकता वश पूछा।
 ‘‘नहीं। वह तो इसके बाल्यकाल में ही स्वर्गवास कर गया था। बहुत भला आदमी था। मैं इस लड़के के नाना के यहाँ पाँच रुपये महीना पर नौकर हुआ था।’’

इसने तो चन्दन के मन में और भी अधिक उत्सुकता उत्पन्न कर दी। वह जानती थी कि उसके पिता ने छः वर्ष की आयु में लाहौर में एक मशीनरी के दुकानदार के घर पर चौका-बासन करने की नौकरी की थी और उस स्थिति से उन्नती करते-करते वर्तमान स्थिति तक पहुँचा था। इस कारण अपने पिता के मालिक की लड़की के पुत्र की बात सुन वह मुस्कराकर बोली, ‘‘इसको यहाँ कारखाने में काम दीजिए और इसकी माँ को यहाँ बुला लीजिए।’’
‘‘अभी तो मैं यह देख रहा हूँ कि इसे किस प्रकार काम पर लगाऊँ। यदि इसने अपने में प्रखर बुद्धि का परिचय दिया तो फिर इसकी बहुत दूर तक सहायता करूँगा। इसके नाना के ऋण से उऋण होने का मैं यत्न करूँगा।’’
वे अभी बातें कर ही रहे थे कि रजनीकान्त आ गया। स्नानदि करने से तथा रेशमी वस्त्र पहनने-से उसकी रूप-राशि में विशेषता उत्पन्न हो गई थी। वह आया तो परिवार के लोग उसकी ओर देखने लगे।

सोमदेव ने अपने समीप एक कुर्सी पर बैठने का निमन्त्रण देते हुआ कहा, ‘‘रजनी, इधर आओ। तुम मेरे समीप बैठो।
रजनीकान्त बैठा तो बैरा भोजन परोसने लगा। सोमदेव ने घरवालों को रजनी का परिचय दिया, ‘‘यह हैं रजनीकान्त। कारखाने में नौकरी करने के लिए आए हैं। दिल्ली से आने के लिए रेल का भाड़ा न होने के कारण वहाँ से आज पाँच बजे प्रातः के चले हुए बारह बजे कारखाने में पहुँचे हैं। मैंने इनसे कहा कि इन्हें बिना टिकट का यात्रा करके समय पर पहुँचना चाहिए था। यह कहते हैं कि यदि पकड़े जाते तो बारह बजे भी न पहुँच सकते।’’
अरुण और अन्य सभी हँसते हुए रजनीकान्त की ओर देखने लगे।
सोमदेव ने इतना रजनी का परिचय करा अपने घरवालों का परिचय करा दिया। उसने कहा, ‘‘अच्छा रजनी ! यह देखो, यह मेरा लड़का अरुणदेव है। इसका अपना एक कारखाना बदरपुर तुगलकाबाद में है। इसके साथ बैठी इसकी पत्नी मृदुला देवी हैं और उसके आगे अरुण की माँ साधना जी बैठी हैं, और यह है अरुण की बहन चन्दन देवी। यह बच्ची मेरी पोती है। नाम है सन्तोष।


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